खुदा और माँ...
ज़हीन बना तुम्हे खुदा ने यूँ नवाज़ा है,
किसी और की कहा तुझे ज़रूरत, जब तेरा ही खुद ख्वाजा है..
कहते खुदा की रेहमत बिना, तकदीर नहीं खिलती,
जन्नत उनका होता है, जिन्हे है माँ यहीं मिलती..
दो ही तो वे लोग है जिन्हे, खुद से ज्यादा तुम्हारा सरोकार,
ज़िन्दगी के बाद भी, कभी न तुम, भूलना उनका परोपकार..
खुदा ने तकदीर लिखते वक़्त, भरे उनमे कई रंग,
तुम तो ऊपर बैठे हो, यहाँ तो सिर्फ मेरी माँ है संग..
खुदा मिले बन्दे से, सबके हाथों में ऐसी कहाँ रेखा है,
मैं मुतमइन हूँ, तेरी रेहमत से, मैंने
माँ को देखा है..
माँ शब्द ही ऐसा विशाल, बोलते लगे पूरी दुनिया हो,
फितरत ऐसी मासूम,
जैसे सदगीभरी कन्या हो..
माँ के अंचल में न ढँक सके, ऐसा कोई संसार
नहीं..
हदों में जो सिमटा हो, वैसा होता माँ
का प्यार नहीं..
रचना-
डॉ ऋचा अग्रवाल
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