Thursday, March 12, 2015

DESH.. POEM



विदेश में देश की चाह...


जो कहना है उसके लिए अलफ़ाज़ नहीं,
मेरे लबों को विष की प्यास नहीं..
पतंगा आग की ओर लपकता है,
अगले ही पल वह प्राणों को तरसता है..

फासलों से ही मंज़र की कशिश होती है,
नज़दीकियों से तो अनजाने में ही रंजिश होती है..
सादी चीज़ें हमें अच्छी कहा लगती है,
हमारी आँखें तो अजूबों के लिए ही तरसती है..

मजबूरीवश हुआ हमारा भी विदेश आना,
यहाँ आकर भी हमने सिर्फ और सिर्फ ये जाना..
अपनी धरा पर रहकर, दिल को जो तस्सल्ली मिलती है,
यहाँ कोई कमी तो नहीं, पर उसकी खलिश होती है..

बरसात भी यहाँ की रूमानी नहीं लगती,
पेड़ों की छाया सुहानी नहीं लगती..
सूरज की निराली धुप गुनगुनाती क्यूँ नहीं..
बर्फ की चाह थी, उससे खेलने को हम राज़ी क्यूँ नहीं..

बारिश की वो महक,जो सबके दिलों को है भाती,
क्या बताऊ मैं, मुझे वो मिटटी की खुशबु यहाँ नहीं आती..
यहाँ के सूखे पेड़ अकेलापन जताते हैं,
मानो अकेले उदास खड़े रोते जाते हैं..

पतझड़ का मौसम जो छटा बिखेरता था,
मानों लगता रेगिस्तान का तूफां लेकर आया है..
मौसम यहाँ का देख जब दिल थर्राता है,
सच कहूँ माँ मेरा मन घबराता है..

ताश के पत्तों से ये मकान, खूबसूरती ज़रूर बढ़ाते हैं,
इस बात से अनजान है, घर तो इंसान बनाते हैं..
यहाँ तो इन्सां तो इन्सां की खबर नहीं,
मर भी जाए तो कुछ की मौत को कबर नहीं..

घर ज़रूर है पर साथ रहने कोई नहीं,
जाने कितने मासों से दादी-नानी ये सोयीं नहीं..

होली यहाँ जो खेल भी लें, वो रंग होते, त्यौहार नहीं,
ईद-दिवाली तारीखों में गुम, लगता जानो कोई बात नहीं.. 

आना यहाँ, होगा लोगों का सपना, हमारा तो देश जाना सुनहरा सपना है,
हो कितनी भी कमियां, माँ को तो लगता सबसे प्यारा बच्चा अपना है..
सच है के घर की मुर्गी, दाल बराबर हो जाती है,
जब इन्सां पे खुद पड़ती है, तो सबको सब खबर हो जाती है..


डॉ ऋचा सिंघानिया

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