साथ नहीं होता...
कुछ यूँ बढ़ चले हम उजाले की खोज में, आँखें खोलने का
ख्याल भी ना आया..
उजाले में जब ढूंढा साथ हमने, पाया वहां बस
अपना ही साया..
जाना के किसी तलाश में, कोई साथ नहीं होता,
ये दुनिया बड़ी ज़ालिम है, यहाँ कोई किसी
के लिए नहीं रोता..
वे कहते थे, बढ़ो हम फलक तक साथ हैं,
ज़रा से मसलों में देख लिया, किसके कितने
जज़्बात हैं..
तुम क्यों रोते हो उसके लिये जो इन आंसुओं के लायक नहीं,
जो होगा वो एक बाँध बनकर, इन्हे कभी बहने देगा नहीं..
दुनिया में जब दूजे पर, कभी जो करोगे तुम
कोई आस,
अंत में खुद की नज़रों में, होगा तुम्हारा ही परिहास..
खुद को दरखत्त सा बना लो, के
दुनिया तुम्हे हिला न पाये,
ज़रूरत हमें न होगी किसी की, ज़रूरतमंदों को हम मिल जाए..
यहाँ कोई किसी का नहीं होता, हमें दुनिया ने ये दिखलाया,
एक कदम बढाकर अपना हमने, इस दुनिया को झुठलाया..
रचना-
डॉ
ऋचा अग्रवाल