Saturday, October 24, 2015

Rakshabandhan


Baapu

© Dr. Richa Singhania

Doosra Ghar

Doosra Ghar

Happy Birthday

Blessed to have an elder like you,
Always sparkling with cheer and hue..

Being a great individual aside,
You are there to mentor and guide..

You made to always be an inspiration,
For the recent and coming generation..

May god shower the blessings generously,
For you to stay healthy, wealthy and prosperously..

On this auspicious occasion with great respect due,
Wishing you warmly A Happy Birthday To You..

Sunday, August 9, 2015

Tuesday, April 21, 2015

jeena baaki hai..Couplet

आखिरी सोच-

ज़िन्दगी पूरी हुई, मंज़िल मिली, कामयाबी मिली,
पर ज़रा रुक ऐ ज़िन्दगी, अभी तो जीना बाकी है...

-डॉ ऋचा अग्रवाल, 

Wednesday, April 15, 2015

zindagi.Couplet.

ज़िन्दगी ने जो सिखाया, पाठ यही सबसे सही..
रंजिशें भी किसी से नहीं..उम्मेीदें भी किसीसे नहीं..

Friday, April 3, 2015

zinda ho... COUPLET



ज़िंदा हो गर, तो ज़ाहिर एहसासों को करना सीखो,

वरना सादे चेहरे तो मुर्दों के पास भी हुआ करते हैं...

- डॉ ऋचा अग्रवाल

Friday, March 13, 2015

Alone.. POEM

साथ नहीं होता...

कुछ यूँ बढ़ चले हम उजाले की खोज में, आँखें खोलने का ख्याल भी ना आया..
उजाले में जब ढूंढा साथ हमने, पाया वहां बस अपना ही साया..

जाना के किसी तलाश में, कोई साथ नहीं होता,
ये दुनिया बड़ी ज़ालिम है, यहाँ कोई किसी के लिए नहीं रोता..
                                                                    
वे कहते थे, बढ़ो हम फलक तक साथ हैं,
ज़रा से मसलों में देख लिया, किसके कितने जज़्बात हैं..

तुम क्यों रोते हो उसके लिये जो इन आंसुओं के लायक नहीं,
जो होगा वो एक बाँध बनकर, इन्हे कभी बहने देगा नहीं..

दुनिया में जब दूजे पर, कभी जो करोगे तुम कोई आस,
अंत में खुद की नज़रों में, होगा तुम्हारा ही परिहास..

खुद को दरखत्त सा बना लो, के दुनिया तुम्हे हिला न पाये,
ज़रूरत हमें न होगी किसी की, ज़रूरतमंदों को हम मिल जाए..

यहाँ कोई किसी का नहीं होता, हमें दुनिया ने ये दिखलाया,
एक कदम बढाकर अपना हमने, इस दुनिया को झुठलाया..                                                                                                              
रचना-                                                                                               डॉ ऋचा अग्रवाल

Thursday, March 12, 2015

DESH.. POEM



विदेश में देश की चाह...


जो कहना है उसके लिए अलफ़ाज़ नहीं,
मेरे लबों को विष की प्यास नहीं..
पतंगा आग की ओर लपकता है,
अगले ही पल वह प्राणों को तरसता है..

फासलों से ही मंज़र की कशिश होती है,
नज़दीकियों से तो अनजाने में ही रंजिश होती है..
सादी चीज़ें हमें अच्छी कहा लगती है,
हमारी आँखें तो अजूबों के लिए ही तरसती है..

मजबूरीवश हुआ हमारा भी विदेश आना,
यहाँ आकर भी हमने सिर्फ और सिर्फ ये जाना..
अपनी धरा पर रहकर, दिल को जो तस्सल्ली मिलती है,
यहाँ कोई कमी तो नहीं, पर उसकी खलिश होती है..

बरसात भी यहाँ की रूमानी नहीं लगती,
पेड़ों की छाया सुहानी नहीं लगती..
सूरज की निराली धुप गुनगुनाती क्यूँ नहीं..
बर्फ की चाह थी, उससे खेलने को हम राज़ी क्यूँ नहीं..

बारिश की वो महक,जो सबके दिलों को है भाती,
क्या बताऊ मैं, मुझे वो मिटटी की खुशबु यहाँ नहीं आती..
यहाँ के सूखे पेड़ अकेलापन जताते हैं,
मानो अकेले उदास खड़े रोते जाते हैं..

पतझड़ का मौसम जो छटा बिखेरता था,
मानों लगता रेगिस्तान का तूफां लेकर आया है..
मौसम यहाँ का देख जब दिल थर्राता है,
सच कहूँ माँ मेरा मन घबराता है..

ताश के पत्तों से ये मकान, खूबसूरती ज़रूर बढ़ाते हैं,
इस बात से अनजान है, घर तो इंसान बनाते हैं..
यहाँ तो इन्सां तो इन्सां की खबर नहीं,
मर भी जाए तो कुछ की मौत को कबर नहीं..

घर ज़रूर है पर साथ रहने कोई नहीं,
जाने कितने मासों से दादी-नानी ये सोयीं नहीं..

होली यहाँ जो खेल भी लें, वो रंग होते, त्यौहार नहीं,
ईद-दिवाली तारीखों में गुम, लगता जानो कोई बात नहीं.. 

आना यहाँ, होगा लोगों का सपना, हमारा तो देश जाना सुनहरा सपना है,
हो कितनी भी कमियां, माँ को तो लगता सबसे प्यारा बच्चा अपना है..
सच है के घर की मुर्गी, दाल बराबर हो जाती है,
जब इन्सां पे खुद पड़ती है, तो सबको सब खबर हो जाती है..


डॉ ऋचा सिंघानिया

MAA.. POEM



खुदा और माँ...

ज़हीन बना तुम्हे खुदा ने यूँ नवाज़ा है,
किसी और की कहा तुझे ज़रूरत, जब तेरा ही खुद ख्वाजा है..

कहते खुदा की रेहमत बिना, तकदीर नहीं खिलती,
जन्नत उनका होता है, जिन्हे है माँ यहीं मिलती..

दो ही तो वे लोग है जिन्हे, खुद से ज्यादा तुम्हारा सरोकार,
ज़िन्दगी के बाद भी, कभी न तुम, भूलना उनका परोपकार..

खुदा ने तकदीर लिखते वक़्त, भरे उनमे कई रंग,
तुम तो ऊपर बैठे हो, यहाँ तो सिर्फ मेरी माँ है संग..

खुदा मिले बन्दे से, सबके हाथों में ऐसी कहाँ रेखा है,
मैं मुतमइन हूँ, तेरी रेहमत से, मैंने माँ को देखा है..

माँ शब्द ही ऐसा विशाल, बोलते लगे पूरी दुनिया हो,
फितरत ऐसी मासूम, जैसे सदगीभरी कन्या हो..

माँ के अंचल में न ढँक सके, ऐसा कोई संसार नहीं..
हदों में जो सिमटा हो, वैसा होता माँ का प्यार नहीं..
                                                                                                          रचना-                                                                                               डॉ ऋचा अग्रवाल